यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध।।
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अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब ।
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गजानन माधव मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य के ऐसे कवि हैं जिन्होंने छायावाद से काव्य रचनाएं आरम्भ की और प्रगतिवाद, प्रयोगवाद व नई कविता की युगधाराओं से जोड़ते हुए काव्य में ऐसी काव्य भाषा और शिल्प का प्रयोग किया जो रचनाओं को कालजयी बना देती हैं।
उनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह युग की नई चेतना नये रूप में अभिव्यक्त हुई है वह भी नई काव्य भाषा में। जिसमें चेतना और भावना के विद्रोह के साथ भाषा का विद्रोह भी मिलता है। ... मुहावरे, लोकोक्तियों का अद्भुत प्रयोग भी हुआ जो काव्य को जीवन प्राण देती है।
वस्तुतः मुक्तिबोध , जीवन दर्शन ,व्यवस्था की विसंगतियों और सामाजिक चेतना से साक्षात्कार करते हुए जीवन के सौन्दर्य को तलाशते हैं। यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर, 1917 को रात 02 बजे श्योपुर मध्यप्रदेश में माधवराव-पार्वती दंपत्ति के घर हुआ। 17 फरवरी 1964 को अकस्मात पक्षाघात हुआ और अन्ततः 11सितम्बर 1964 को भोपाल मध्यप्रदेश में प्राण त्याग दिए। निवास स्थान को अब ‘मुक्तिबोध स्मारक’ बना दिया गया है.
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मुक्तिबोध काव्य को दो प्रकार का मानते हैं- यथार्थवादी और भाववादी या रूमानी। उनके अनुसार, ''कलाकृति स्वानुभूत जीवन की कल्पना द्वारा पुनर्रचना है। यथार्थवादी शिल्प के अन्तर्गत, कलाकृति यथार्थ के अन्तर्नियमों के अनुसार यथार्थ के बिम्बों की क्रमिक रचना प्रस्तुत करती है किन्तु भाववादी रोमांटिक शिल्प के अन्तर्गत कल्पना अधिक स्वतन्त्र होकर जीवन की स्वानुभूत विशेषताओं को समष्टि चित्रों द्वारा, प्रतीक चित्रों द्वारा प्रस्तुत करती है। मुक्तिबोध वस्तुतः जीवन दर्शन ,व्यवस्था की विसंगतियों और सामाजिक चेतना से साक्षात्कार करते हुए जीवन के मुक्ति का मार्ग तलाशते हैं।यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध।
पाठकों के लिए कवितायें --
"अँधेरे में " के कुछ अंश गजानन माधव मुक्तिबोध
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अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब ।
पहुँचाना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने को मिलेंगी बाँहें
जिनमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक।
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इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झांक-झाँककर देखता हूँ हर चेहरा
प्रत्येक गतिविधि,
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय-स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
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खोजता हूँ पठार ...पहाड़ ...समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा!
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"चांद का मुंह टेढ़ा है",यह शीर्षक ही काफी है।अभिव्यक्ति को सीधा ,सरल और सहज बनाने के साथ ही प्रखर बनाता है।
चांद का मुंह टेढ़ा है" की कुछ पंक्तियां -
नगर के बीचों-बीच
आधी रात--अंधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कारखाना--अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार--चिह्नाकार--मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
चांद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।
समीप विशालकार
अंधियाले लाल पर
सूनेपन की स्याही में डूबी हुई
चांदनी भी सँवलायी हुई है !!
भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चांदनी के होंठ काले पड़ गये
हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी--
चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर
टेढ़े-मुँह चांद की ।
बारह का वक़्त है,
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र
शहर में चारों ओर;
ज़माना भी सख्त है !!
अजी, इस मोड़ पर
बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल
अजगरी मेहराब--
मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में
बसी हुई
सड़ी-बुसी बास लिये--
फैली है गली के
मुहाने में चुपचाप ।
लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप,
अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप
फड़फड़ाते पक्षियों की बीट--
मानो समय की बीट हो !!
गगन में कर्फ़्यू है,
वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,
धरती पर किन्तु अजी ! ज़हरीली छिः
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गणेश कछवाहा
काशीधाम
रायगढ़ छत्तीसगढ़।
9425572284
gp.kachhwaha@gmail.com