( 01)
बसंत एक क्रांति है
भव्य
इमारत के
वातानुकूल कमरे के
शो केस में
कागज की बनी
गुलाब की
पंखुड़ियों को देखकर
तुम
यह मत समझो
कि
बसंत आ गया है।।।
कूकती कोयल,
इतराते आम्रबौर,
सुगंध बिखेरते पुष्प,
सम्मोहित करती
पुरवैया,
महज
प्रकृति का श्रृंगार
ही नहीं है
और न ही
पंचसितारा
संस्कृति में डूबकर
कमर मटकाने
जाम झलकाने का
घिनौना
और
वैश्याना बिम्ब है,
बल्कि वह तो
सुकोमल भावनाओं और
संवेदनाओं को अंकुरित करती
जीवन के
असीम आनंदित झणों के
अनुपम श्रृंगार का
प्रतिबिंब है।।
टेसू का
अंगारों सा दहकना
केवल
प्रकृति का सौन्दर्य ही नहीं
बल्कि
दैत्याना और बहिशाना
हरकतों के खिलाफ
एक जंग का
ऐलान भी है
और
जगमगाती
नई सुबह की
लालिमा की दस्तक है।।
जब
उन्मुक्त हंसी,
निश्छल मुस्कान,
पुरवैया मनभावन,
काव्य,कला,संगीत की अनुगूँज हो,
वनपांखियो का कोलाहल हो,
सृजन के नए आयाम हो,
नवयौवना की चाल
मतवाली हो,
खेतों में हरियाली हो और
पनघट इठलाती हो
तब समझो
बसंत आ गया।।
बसंत
महलों और झोपड़ियों में
कोई भेद नहीं रखता।
बसंत
उस आंगन में
हंसता है,खेलता है,गुनगुनाता है
जहां इंसान रहते हैं।
उसे
शो केस या
पंचसितारा संस्कृति की
चार दीवारी में
कैद नहीं किया जा सकता।।
बसंत
एक जीवन है,आंदोलन है,परिवर्तन है
वास्तव में
बसंत एक क्रांति है
जी हाँ एक क्रांति है।।
*******
*******
( 02 )
झोपड़ियों के चूल्हों से
—————-
झोपड़ियों के
चूल्हों से
जब
धुँआ निकलता है
तब
मन को यह सोचकर
चैन मीलता है कि-
आज
कोई भूखे पेट
नहीं सोएगा।।
पर सोचता हूँ
कि –
हंडीयो में डबडबाते
चावल के दानो से
बच्चों की
सिसकीया क्यों
सुनाई पड़ती है?
पके चावल के
पानी से
पसीने की बू
क्यों आती है?
माँ का आँचल
आसुओं से क्यों
भीग जाता है?
जीवन क तमाम सपने
धुओ के साथ
कालचक्र में
उड़ते हुए
क्यों दीखाइ पड़ते है?
सोचता हूँ
और भी बहुत कुछ सोचता हूँ
पर
न जाने कब क्यों और कैसे
सूर्य पश्चिम में
डूब जाता है?
इसके बावजूद
मै जानता हूं
कि
झोपड़ियो की
टूटी छज्जों,
दरार पड़ी दीवारों
के कोरों से
आँगन में आती
सूर्य की रौशनी
के मध्य
अपने जीवन
के किताब के
एक एक अक्छर को
साफ साफ
लिखेंगे गढ़ेंगे पढेंगे
और एक
नया इतीहास रचेंगे।।
*****
*****
( 03 )
तुम मंदिर ,मस्जिद सब ले लो
—————–
तुम
मंदिर ,मस्जिद
सब ले लो
पर
मां का आंचल
बच्चे की मुस्कान
बूढ़े बाप की लाठी
पत्नी के मांग का सिंदूर
बहन की राखी
एक झोपड़ी
और
दो जून कि रोटी
हमें दे दो।।
हे राम
तुम तो
कण कण में
घट घट में
व्याप्त थे
आखिर तुम्हें
कंकड़ पत्थर के
भव्य चार दिवारी में
किसने कैद कर दिया?
तुमने तो
सबरी के झूठे बेर खाए थे
क्या
अब
गरीबों,
झोपड़ पट्टियों,
दलितों से
तुम्हें भी
घृणा होने लगी है?
या
तुम्हें भी
जन जन से
दूर कर
चार दिवारी में
कैद करने की
साजिश की जा रही है?
या फिर
आर्थिक उदारीकरण,
बदलते परिवेश में
तुम्हें भी
कॉर्पोरेट्स
बहू राष्ट्रीय कंपनियों की खनक
सत्ता,पूंजी और
आलीशान भवन की
चकाचौंध भाने लगी है।
क्या इसीलिए
फुटपाथ,
झोपड़ी,
चौराहों,घरों,
और
इंसानों के
हृदय में नहीं
करोड़ों,अरबों की लागत के
भव्य मंदिर में
रहना चाहते हो।
हे राम
क्या तुमने
राम रहीम की
पवित्र परम्परा को भी
भुला दिया
एक भव्य आलीशान
मंदिर के लिए
निर्दोषों का
खून बहा दिया।
सरयू को अपवित्र कर
अयोध्या को
रुला दिया।
क्या तुम्हारे
यही आदर्श हैं?
हे राम
रामचरित मानस और
रामायण में तो
ऐसा चरित्र
नहीं बताया
फिर किसने और क्यों
तुम्हें इतना हिंसक बनाया
तुम तो
करुणा मय
दयानिधि
मर्यादा पुरुषोत्तम हो
सिया राम हो।
भवसागर से पार लगाने
जीवन का उद्धार करने
सियाराम हो।
सियाराम , सियाराम
के नाम का जाप
जग को सिखाया
जन कल्याण के लिए
राज पाठ त्याग कर
वानप्रस्थ अपनाया
परंतु
ये कौन हैं
जो
सियाराम की जगह
जय जय श्री राम
का कर्कश उद्घोष कर
वान प्रस्थ से
राज पथ
की ओर ले जाना चाहते हैं
और
तमाम मर्यादाओं
मानवता ,संवेदनाओं को
कुचल कर
राज सिंहासन
हथियाना चाहते हैं?
रामायण और
रामचरित मानस
की जगह
यह कौन सी
नई ग्रंथ
लिखी जा रही है ?
हिंसा, नफरत,द्वेष, घृणा का
पाठ पढ़ाया जा रहा है।
साधु,संतो,
फकीरों,तपस्वियों,
ऋषि,मुनियों ने
पहाड़ों,जंगलों,
गुफाओं, एकांत तथा
आत्मा में
राम को ढूंढा,पाया ,देखा
और साक्षात्कार किया।
हमें यही
हमारा अपना राम
सियाराम चाहिए
जो
किसी महलों में नहीं
कण कण में
घट घट में व्याप्त हो।
मानवता,दया, करुणा
और मर्यादा का
सर्वोत्तम आदर्श हो।।—
तुम
मंदिर ,मस्जिद
सब ले लो—–दो जून कि रोटी
हमें दे दो।।
******
( 04 )
सूखी रोटी
————-
सूखी रोटी सहज कर रखी है मां
आज कोई भूखे पेट नहीं सोएगा।।
फेंको मत बरक्कत है बासी रोटी
कई लोग बहुत दिनों से भूखे हैं।।
बिखरी पड़ी है पटरियों में रोटी सूखी
जीवन तलाशते जिंदगी ने मंजिले पा ली।
सारी मशक्कत है दो जून की रोटी के लिए ।
सत्ता,पूंजी की हवस ने हैवान बना दिया।।
तुम्हें फिक्र है सियासत न चली जाए
लोग परेशान हैं कफन दफन कैसे किया जाए।
****
( 05 )
ज़ख्मी हुए हैं हाथ
—————-
ज़ख्मी हुए हैं हाथ गुलाबों को तोड़ा होगा
आज रात फिर कोई मकां तोड़ा होगा।।
ज़श्न मना रहे हैं लोग इस कदर
इंसानियत ने कहीं दम तोड़ा होगा।।
बूटों, बंदूकों, खादी की चहल पहल है बहुत
आज़ फिर कोई दुपट्टा तार तार हुआ होगा।
छुप गया है आज पूर्णिमा का चांद
रात जलती चिता में सख़्त पहरा लगा होगा।।
चीख रहा है सन्नाटा जोरों से
कोई आंचल मैला जरूर हुआ होगा।
कई दिनों से लगा है मेला शहर में
कोई हादसा बड़ा जरूर हुआ होगा।।
संसद में आज फिर मेजें थपथपाई गई हैं
कोई नया बड़ा जुमले बाजी हुआ होगा ।।
*****
गणेश कछवाहा
“काशीधाम”
रायगढ़ छत्तीसगढ़।