Azaad-bharat News/रायगढ़ - मध्य प्रदेश का बुंदेलखंड का अतीत बहुत ही ऐतिहासिक और गौरवशाली रहा है। क्योंकि यही पर 28वें कलयुग में प्रकट होने वाले एक परब्रह्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण ने श्री प्राणनाथ के रूप में पद्मावती पुरी धाम ’पन्ना’ को अपनी राजधानी बनाया था और उन्हें ऐसे महाबाहुबली पराक्रमी महाराजा श्री छत्रसाल जी मिले जिन्होंने धर्म के सेवा में खुद को स्वामी जी पर तन मन धन से न्योछावर कर दिया था। इतिहास साक्षी है कि यही एक मात्र ऐसे राजा थे जिन्होंने औरंगज़ेब के साथ 100 से ज्यादा लड़ाइयां लड़ी और सब पर जीत हासिल कर बुंदेलखंड रूपी विशाल राज्य की स्थापना की। बच्चे-बच्चे के मुंह से यही शब्द निकलते थे।
छत्ता तेरे राज पर ,धक-धक धरती होय।
जीत-जीत घोड़ा मुंह करें, तित-तित फते होय।।
श्री चंपत राय और उनकी पत्नी लाड कुवंरी (सारंधा) शाहजहां की आंखों में खटक रहे थे और रानी गर्भवती थी, एक सुरक्षित स्थान कंचन हारि पहाड़ी पर चुना और जेष्ठ शुक्ल तृतीया विश्व संवत 1706 सोमवार को गोधूलि बेला में रानी लड़कुंवारी ने एक बहुत सुंदर बालक को जन्म दिया, जिसका नाम था छत्रसाल था। तभी मुगलों ने दंपति पर आक्रमण किया और चंपत राय ने रानी और बच्चे को गोद में लेकर ऐसे मोर की तरह छलांग लगाई और बच निकले। तब से कंकर कंचन हार पहाड़ी का नाम ’मोर पहाड़ी’ पड़ गया।
छत्रसाल जी का लालन-पालन रानी सारंधा बड़े ही प्यार से करने लगी। 10 वर्ष की आयु तक पहुंचते हुए छत्रसाल जी ने अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुणता हासिल कर ली। विक्रम संवत 1717 में एक दिन छत्रसाल जी ने कुलदेवी विंध्यवासिनी जी के मंदिर के बाहर मुगल सैनिकों को भक्तों से अभद्र व्यवहार करता देख सैनिकों पर टूट पड़े और सबको मार गिराया भक्तगण छत्रसाल जी का जय घोष करने लगे। इस समय छत्रसाल जी केवल 10 वर्ष के थे। सम्वत 1718 को चंपत दंपति मुगलों से युद्ध करते-करते वीरगति को प्राप्त हुए अपने माता-पिता का वियोग उनसे सहन नहीं हो रहा था और वह बीमार पड़ गए तब उनके गांव की कुमार की बेटी ने सगी बहन से बढ़कर छत्रसाल जी की सेवा की। उसके पश्चात् अपने बड़े भाई अंगद राय के पास देवगढ़ पहुंचे। बड़े भाई ने ढाढस बधांया और छत्रसाल जी का विवाह 1722 में सुकन्या देव कुवंरी से कर दिया। रानी देव कुवंरी भी छत्रसाल जी की भांति मुगलों के खिलाफ रणभूमि में जाकर अपने पति का साथ दिया करती थी। मुगल सेना बड़ी थी इसलिए उन्हें हराने के लिए मुगलों की कमजोरी पता करने के लिए राजा जयसिंह से जा मिले, राजा जय सिंह को भी छत्रसाल जी की वीरता पर कोई संदेश नहीं था।
देवगढ़ विजय विक्रम संवत 1724-इस विशाल किले को जीतने के लिए बहादुर खां की तमाम कोशिश नाकामयाब हो रही थी कि वहीं छत्रसाल जी ने अपनी रणनीति तैयार की और किले के अंदर घुस गए। भयानक युद्ध हुआ और आखिर में छत्रसाल जी ने किले को अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन छल से बहादुर खां ने जीत का सेहरा अपने सर ले लिया। छत्रसाल जी के मन में मुगलों के लिए घृणा और बढ़ गई और शिवाजी से मिलने निकल पड़े। सन 1668 को शिवाजी से आशीर्वाद लेकर बुंदेलखंड वापस आ गए। अपने युद्ध कौशल से मुगलों पर घूम घाट में विजय प्राप्त की। फिर भी छत्रसाल जी अंदर ही अंदर सोचते रहते थे कि काश शिवाजी के गुरु की तरह उनका भी कोई गुरु होता, जो उनका मार्गदर्शन करते। ऐसे समय में ही श्री प्राणनाथ जी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि मैं जल्द ही तुम्हें मिलूंगा और पहचान के वास्ते अपनी छाप का सिक्का छत्रसाल जी को दे दिया। प्राणनाथ जी का आशीर्वाद क्या मिला मानो उनके अंदर दिव्य शक्ति समावेश कर गई बार-बार मुगलों पर विजय हासिल की। 12 वर्ष तक सं. 1727 से 1739 में अनेकों युद्ध लड़े और विजय प्राप्त की।
महाराजा छत्रसाल जी में परमधाम की आत्म का अंकुर था। देवकरण जी से अपने धाम धनी श्री प्राणनाथ जी का संदेश सुनते ही आत्म व्याकुल हो उठी। मन में श्री जी से मिलने की इच्छा इतनी बड़ी की लाल दास जी और उत्तम दास जी भी मऊ पहुंच गए और जब उनसे श्रीमुख वाणी और वेदों की चर्चा सुनी तो तुरंत आत्मा जागृत हो उठी। स्वामी श्री प्राणनाथ जी के दर्शन पाने हेतु आतुर हो उठे। छत्रसाल जी ने देवकरण जी को श्री जी को मऊ लाने हेतु भेजा और श्री प्राणनाथ जी ने किलकिला नदी के किनारे डेरा लगाए और अपना नूरी झंडा फहराया। पर छत्रसाल जी की विनती पर मऊ पधारे और उन्हें पर्चम दिया कि वही छत्रसाल जी के धाम के धनी है वैसे अनेक सिक्के दिखाकर जो स्वप्न में छत्रसाल जी को श्री प्राणनाथ जी ने दिए थे। महाराजा छत्रसाल श्री जी के चरणों में गिर पड़े। स्वामी श्री प्राणनाथ जी मऊ से पन्ना वापस आ गए थे। छत्रसाल जी का परिवार चोपड़ा की हवेली में रहता था। श्री प्राणनाथ जी बाईजू राज जी के साथ पालकी में पधारे। छत्रसाल जी ने पाग और रानी ने पावंड़ा बिछाया और श्री जी सिंहासन पर आकर विराजमान हो गए।
ब्रह्म सृष्टि की उपाधि-छत्रसाल जी के चाचा बल दीवान और दरबारीयों में छत्रसाल जी के विरुद्ध यह भावना आ गई कि वे तो श्री जी की झूठन खाते हैं और फिर अपनी पाग और रानी की साड़ी भी बिछा दी। यह सब उन्हें अच्छा नहीं लगा। तब छत्रसाल जी ने सबको बड़े प्रेम से समझाया।
’पूर्ण ब्रह्म, ब्रह्म से न्यारे, आनंद अखंड अपार’
मेरे घर में पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत सच्चिदानंद श्री क्षर और अक्षर ब्रह्म से परे हैं। सदा सत्य सुख और आनंद को देने वाले हैं, वह पधारे हैं । ना यह मेरे गुरु ना मैं उनका चेला क्योंकि गुरु और चेले का संबंध शरीर का होता है। यह तो मेरे आत्मा के धनी श्री राज जी महाराज है। मेरे इस तन के अंदर उनकी आत्मा होने के कारण मैं उनके मूल परमधाम की अंगना हूं और यह मेरे धाम के दूल्हा हैं। मैं अपने इस प्राण पिया पर वारी- वारी जाती हूं।
’एही टीका एही पावंडो, एही निछावर आए।
श्री प्राणनाथ के चरण पर, छत्ता बली बली जाए।।
महाराजा छत्रसाल जी की महान बातें सुनकर श्री प्राणनाथ जी बहुत प्रसन्न हुए। सत्य धर्म श्री निजानंद संप्रदाय को सब जगह फैलाने की भावना हेतु श्री जी ने बड़ा कयामत नामा वानी को महाराजा छत्रसाल जी के नाम से जाहिर किया। श्री छत्रसाल जी ने औरंगजेब के खिलाफ 100 से ज्यादा लड़ाइयां लड़ी और सब में विजय हासिल की। जागनी अभियान का कार्य भी जोरो पर चला और सारे बुंदेलखंड में भी शांति समृद्धि आई। मगर इतिहास आज भी उनके धाम गमन के बारे में मौन है। श्री पन्ना जी में परमात्मा के उठापन के साथ-साथ ही श्री छत्रसाल जी का उठापन करके सेवा कार्य किया जाता है। जब तक यह ब्रह्मांड खड़ा है, तब तक छत्रसाल जी के स्नेह, त्याग कुर्बानी, प्रेम और सेवा के बारे में चर्चा होती रहेगी।
हर वर्ष श्री छत्रसाल जयंती बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है और इस वर्ष भी श्री राधा कृष्ण प्रणामी मंदिर कोतरा रोड, रायगढ़ में 9 जून 2024 को श्री छत्रसाल जयंती बड़े ही हर्षाे उल्लास के साथ आयोजित की जा रहा है। आप सभी प्रेमी जनों से विनम्र आग्रह है कि संध्या 7ः00 बजे से मंदिर में पधार कर छत्रसाल जयंती का आनंद उठाएं और अपना जीवन सफल बनाएं।