” निःशब्द क्यों हो गाओ न ! ” चम्बल के जल में अपने पैरों के सौंदर्य का अर्ध्य देती हुसैनी का उदास सौंदर्य सेन को विचलित किए दे रहा था. ” आज खामोशी के साज़ पर मेरे सोज़ भरे गीत ही सुन कर खुश हो जाइए. ” हुसैनी की आवाज़ में गहरी तड़प थी. उसकी तड़प से कबीटों में मनो खटास पड़ गई थी और शहतूत की शहतीरी बेलें जलभुन कर काली हो गई थीं. लहरें ज़िद पर आ गई थीं. और पेड़ों के झुरमुटों के घने अक्स से काला होता चम्बल का चम्पई पानी तानसेन को ताने मारने लगा था. रोज़ वे यहीं मिलते थे ,
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