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पठान से BBC डॉक्यूमेंट्री तक ‘सरकारी’ राष्ट्रवाद और बहिष्कार संस्कृति, आखिर कहीं तो होगा इसका सिरा



मीडिया की भूमिका ने चीजों को और बिगाड़ा है। इसने ऊटपटांग बयानबाजियों, बेतुके मुद्दों को जिस तरह उछालना शुरू किया, उसने पूरे विमर्श को बहुत निचले स्तर पर पहुंचा दिया। कंगना रनौत ‘पठान’ का नाम बदलकर ‘भारतीय पठान’ रखना चाहती हैं क्योंकि ‘भारतीय मुसलमान देशभक्त और अफगान पठानों से अलग हैं।’ उनका यह भी दावा है कि ‘पठान’ दुश्मन देश पाकिस्तान और आईएसआईएस को अच्छी रोशनी में प्रस्तुत करती है जबकि भारतीय जनमानस की भावनाओं का प्रकटीकरण करने में विफल है।’

लेकिन ‘चीन की एक दुकान में बैल’ वाली कहावत को लेकर शिकायत क्यों की जाय जब देश के प्रधानमंत्री एक तरफ अपने युवाओं-छात्रों से कहते हैं कि ‘आलोचना तो एक समृद्ध लोकतंत्र के लिए प्राणवायु के समान है’ और दूसरी ओर वह बीबीसी की फिल्म पर प्रतिबंध लगाते हैं। या कश्मीर फाइल्स को प्रोमोट करते हुए 2022 में इस पर हुए विरोध का जोरदार तरीके से बचाव करते हुए कहते हैं : “कोई कुछ देखता है, कोई कुछ और। अब अगर किसी को लगता है कि फिल्म सही नहीं है तो वह अपनी फिल्म खुद बना सकता है, उसे कोई रोक तो रहा नहीं है?” यह एक छूट लेने की कोशिश है कि उनकी सरकार बीबीसी की फिल्म की अनुमति देने को तैयार नहीं है।

अफसोस की बात है कि मीडिया यहां अतिशयोक्ति और कायरता से भरपूर कंगना के राष्ट्रवाद के साथ तो खड़ा दिखाई देगा लेकिन प्रधानमंत्री जो कुछ कहते हैं उसकी रिकार्डिंग को फिर से चलाकर वैसा आईना दिखाने वाला कोई नहीं है कि वह जो कहते हैं और करते हैं, उसकी असंगति और छल-छद्म उनके उच्च पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है।

(नवजीवन के लिए शान्तनु राय चौधरी का लेख। शान्तनु संपादक और फिल्म प्रेमी हैं)



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