सरकार ने जिस तरह ताकतवर मेडिकल लॉबी के दबावों और वैश्विक निर्माताओं और भारतीय वितरकों के तीखे प्रतिरोध के बाद भी मेडिकल स्टेंट को मूल्य नियंत्रण व्यवस्था के तहत ला दिया, वह वाकई बड़ी बात है। फिर भी, मार्केटिंग व्यवस्था में जो गड़बड़ियां हैं, उनसे रोगियों के हित तो प्रभावित हो ही रहे हैं और कई बार ये आपराधिक किस्म के होते हैं और इन सबका फायदा दवाओं और उपकरणों के उत्पादक, इनकी मार्केटिंग से लेकर इनके इस्तेमाल का रास्ता साफ करने वाले डॉक्टर और अन्य प्रोफेशनल को होता है।
इस क्षेत्र की, और खास तौर पर हमारे देश में एक और बड़ी समस्या है। यहां दवाओं के फॉर्मूलेशन का भी मसला है जिसमें वैसे अवयव भी होते हैं जिनकी किसी खास स्थिति में जरूरत ही नहीं होती या जो वैश्विक बाजार में प्रतिबंधित है। ब्रांडेड जेनरिक्स के मामले में तो यहां हालत काबू से बाहर हैं। 2021 में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने बताया कि ‘अगस्त, 2019 से जुलाई, 2020 के दौरान भारत के फार्मा बाजार में 2,871 फॉर्मूलेशन से जुड़े 47,478 ब्रांड थे, जिसका मतलब है कि हर फॉर्मूलेशन के लिए औसतन 17 ब्रांड।’
(दि बिलियन प्रेस)